.....إِبرةَ الوَجَعْ.....
عندما...
تَغيبْ الحياة... 
عن روحك... 
وتَذبل البَسمة... 
عن شِفاهك... 
ويَتشابكَ حاجبيكْ... 
ولا تَعلم...ما بكْ 
وتَنظر...
لمرآةَ الحَقيقة... 
فتَرى كم... 
إِنحنى عودك... 
لأجل من تُحبْ... 
ولكنهم كسروكْ... 
وامتصوا... 
كل رحيقَ الأَمل منكْ...
وعندما...
يَستقيمَ عَقلكْ...
وتَذرفَ العَينْ... 
دموعاً ساخِنةْ...
لأَصغرِ الأَسبابْ... 
وتَتلوى الحُروفْ... 
وتَتطافرَ كل نُقاطها... 
وتَتقافزَ بجنونْ... 
دونَ...
درايةً بما يَحدثْ... 
عندها... 
يَنتابكَ حُزنٌ كَبيرْ... 
عَميق الجُرح...
مَخنوق النزفْ...
وإِبرة الوجعِ...
تسحقُ وتُبيد... 
كل ما تَملكهُ...
فتصمتُ كالأَخرسْ... 
وتدركُ أنكَ في خيبةٍ 
لا حُدود لها...
وتَصحوا... 
فتجد نفسكَ وحيداً... 
والأَغرب من ذلك... 
أنك لم تعلم... 
ماذا... حدث.. ولم 
فقط... عمرك... قد سُرقْ 
دون أَن تَدري... 
---بقلمي---
...سُهاد حَقِّي الأعرجي...
26/11/2018 
الإثنين

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